मंगलवार, 30 अक्तूबर 2012

अपनी ही मैं में ....

दर्द आज़ अपनी ही पीड़ा को
पीना चाहता है आँसुओं की शक्‍ल में
सिसकियों का रूदन
कब चिन्हित हुआ रूख़सार पर
वो हतप्रभ है औ भयाक्रान्‍त भी
इस आक्रोश पर
सर्जक का आवेग बहा ले जाता है
अपनी ही मैं में
बिना किसी की कोई बात सुने
....
ज़बां का खामोश होना
सारे प्रयासों को विफ़ल कर हर बार
दाग देता अपने ही जि़स्‍म में
अनेको शब्‍द बाण
आहत हो मन खुद की शैय्या तैयार कर
विचलित सा अंत की प्रतीक्षा में
अनंत पलों का संहार कर
विषादमय हो
बस प्रतीक्षा करता है अंत की
अनंत पलों तक

गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

एक बांध सब्र का ...

दर्द की भाषा कभी पढ़ी तो नहीं मैने
बस सही है हर बार
एक नये रंग में
उसी से यह जाना है
ये दर्द जब भी होता है
किसी अपने को तो
कई बार हमारी आंखों से भी
बह निकलता है
इसकी पीड़ा से जब व्‍याकुल होता है
हमारा ही कोई स्‍नेही तो हम भी
दर्द की अनुभूति करते हैं
मन ही मन उसका पैमाना तय करते हैं
...
लेकिन यह भी सच है
अपने हिस्‍से का दर्द हमेशा
खुद को ही सहना होता है
तभी तो हर मन में होता है
एक बांध सब्र का
जिसमें होते हैं कुछ हौसले
कुछ उम्‍मीदें कुछ समझौते
जिन्‍हें मजबूती देता है विश्‍वास
जिससे बुलंद होता है
हर एक अहसास
...